Friday, March 28, 2008
खुल के बोलना भडास निकालना नही होता
जब मैं लिख रहा हूँ "खुल के बोल" तो बहुत सम्भावना है कि इसे भडास निकालने के समतुल्य मान लिया जाए ....इसलिए ज़रूरी लग रहा है कि शुरुआत में ही इसे साफ कर दूँ कि "खुल के बोलना " क्या है ? जब -जब भडास शब्द सुनता हूँ यह महसूस होता है कि भडास चिंतन और वैचारिक प्रक्रिया से जुडने की बजाय कुंठा को अभिव्यक्त करता है । हमारे मन में किसी स्थिति या व्यवस्था या विशेष मानसिकता के प्रति आक्रोश होता है और तुरत-फुरत मौका मिलते ही हम उसे उगल देना चाहते हैं इस पूर्वाशा के साथ कि इससे मन हलका हो जाएगा और वापस काम पर चलेंगे तो ताज़ादम हो कर । लेकिन होता अक्सर यह है कि तुरत-फुरत में हलका किया गया मन हमेशा के लिये एक कुंठा से ग्रसित हो जाता है क्योंकि यह आसान काम लगता है कि गालियाँ बक दो ,थूक दो ,उगल दो और फारिग हो जाओ । दूसरी ओर ,एक थोडी जटिल व संतुलित स्थिति यह बनती है कि आक्रोश की वजहों को तलाशा जाए , चिंतन और मनन किया जाए और तब उस व्यक्तिगत अनुभव का सामान्यीकरण करके विषय को सार्थकता की ओर ले जाने का प्रयास हो । खुल के बोलने से निरभयता की ओर संकेत है । निर्भयता के माने दीवार की ओर मुँह करके बॉस को चार गाली देना नही है । निर्भयता के माने हैं व्यवस्थाजन्य दबावों और दुनियावी तौर तरीकों के पाश से मुक्त हो कर सही को सही और गलत को गलत कह सकने की हिम्मत होना । नफे -नुकसान की राजनीति की परवाह के बिना अपने विचारों को कह सकना ।
इस ब्लॉग के पीछे मेरा यही उद्देश्य है कि कैसे मैं दबावों से मुक्त रहकर वो कह सकता हूँ जिसे मैं वाकई कहना चाहता हूँ क्योंकि यह वास्तव में एक सांसारिक जीव के लिये एक दुश्कर कार्य है ।
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