Saturday, April 5, 2008

अब झूठ बोलना और भी आसान


देखिये जी, सदा सच बोलो कह कह कर तो सच्चाई का पाठ पढाया नही जा सकता और वह भी आज के मॉडर्न जमाने में जब झूठ बोलने वालों के लिए सहूलियतें और भी ज़्यादा होती जा रही हैं । बाज़ार और तकनीक के विकास ने हमें आलसी तो बना ही दिया था , हरामखोर भी बनाया , अब झूठा भी ,चोट्टा भी बनाया जा रहा है । बनाया क्या जा रहा है ? आदमी है ही ऐसा ।बस शय मिल गयी है , और क्या ?

कितनी बार देख चुका हूँ {वैसे कर भी चुका हूँ } कि लोग सरे आम मोबाइल फोन पर धड़ल्ली से झूठ बोल रहे होते हैं । रस्टोरेंट मे बैठे पीज़ा भकोस रहे होते हैं और फोन दूसरे हाथ में पकड़ कर कह रहे होते हैं "अरे यार काम में फँसा हुआ हूँ , बॉस सिर पे बैठा है , स्साला काम पे काम ले रहा है , जैसे ही फ्री होउंगा तेरा काम कर दूंगा , तू मिस काल मार दियो "
ऐसे ही दुकान में खड़े एक सज्जन बॉस को चकमा देरहे थे -"सर ! गाड़ी का टायर पंचर हो गया था , वही ठीक कर रहा हूँ धूप में हालत खराब है , बस आधे घण्टे में पहुँच रहा हूँ "
पी.वी.आर से निकलते हुए लड़के- लड़कियाँ उछल -कूद रहे थे ,तभी उनमे से एक की घण्टी बजी । उसने "श श श श्श "
करते हुए उठाया और बोली "हाँ मम्मा , आज एक्स्ट्रा क्लास थी , बस अभी निकली हूँ कॉलेज से । " शायद घर जाकर ये बच्चे कहेंगे "आज बहुत पढाई हुई पता है ! थक गये हैं "
मै भी कहता हूँ पत्नी को अक्सर । उसका फोन बजता है तो पहला वाक्य बोलती है -"कहाँ हो ?" मेरा भी सेट जवाब है "रास्ते में "......

हें हें हें हें हें ही ही ही ही

Thursday, April 3, 2008

स्त्री और नदी के दो किनारे

कल शाम थोड़ा खाली वक़्त था तो टी वी के चैनल सर्फ करने लगा, एक चैनल पर आकर हाथ खुदबखुद रुक गये ,शायद आँखों ने कुछ देखा था ,कानों ने कुछ सुन लिया था और दिमाग ने एक सवाल पैदा किया ।वह एक फिल्म थी -ऐतराज़ । मुख्य किरदार थे -अक्षय कुमार ,करीना कपूर ,प्रियंका चोपड़ा ,अन्नू कपूर और परेश रावल । जिस सीन को देख कर माथा ठनका -वह कोर्ट रूम का सीन था । अक्षय कुमार ने प्रियंका चोपड़ा पर् यौन उत्पीड़्न का केस ठोका था, उधर से प्रियंका चोपड़ा ने अक्षय कुमार पर रेप का केस ठोका था ।अन्नू कपूर अक्षय कुमार की पैरवी कर रहे थे और परेश रावल प्रियंका चोपड़ा की ।अन्नू कपूर केस की शुरुआत करते हुए कहते हैं --
नारी उस नदी के समान है जो अपने दो किनारो की मर्यादा में रहे तो खुशहाली लाती है ,और अगर किनारों को तोड कर बाहर आ जाए तो बदहाली और बरबादी लाती है ।
तो अचानक चोखेर बाली ब्लॉग की याद आ गयी कि उसमें जो स्त्रियाँ छप रही हैं वे दर असल किनारों को ही तोड़ कर बाहर उन्मुक्त बहना चाहती हैं , शायद यही पतनशीलता वाली सभी पोस्टॉ का भी आशय है , और शायद इसी लिए हम पुरुष ब्लॉगरों को उन्हें एक्सेप्ट करने में कठिनाई हो रही है ।
माथा मेरा यह सोच कर ठनका कि मर्यादा या दायरा या चौखट जैसे शब्द या सीमा कह लीजिये ;स्त्री के साथ ही क्यो जोड़े जाते हैं ?? जब भी कोई स्त्री इनसे बाहर निकलती है तो हमें क्यो अटपटा लगता है ?अब कल ही की बात है , मै ऑफिस पहुँचा तो मेरी हम उम्र कलीग ने मेरी पीठ थपथपा कर कोई बात कही ।मैं तब से सोच रहा हूँ कि यही बात मुझे क्यों याद रह गयी । इस व्यवहार में ऐसा क्या था । यदि कोई पुरुष कलीग ऐसा करता तो यह व्यवहार एक सामान्य लगने वाला होता ,जिसमें याद रखने या मन में अटक जाने जैसा कुछ नही मिलता ।लेकिन महिला साथी का यह व्यवहार क्यों मन में अटक गया ?
मुझे लगता है इसका मूल कारण हमारी सोशलाइज़ेशन के भीतर छिपा है । बचपन से ही हमें लड़के और लड़की होने का फर्क बताया जाता है,अपेक्षित व्यवहार समझाये जाते हैं और साथ ही अनपेक्षित व्यवहारों के सामाजिक निहितार्थ भी समझाए जाते हैं । बचपन में जिन्हें अच्छा लडका-अच्छी लड़की या गन्दा लड़का -गन्दी लड़की सम्बोधनो से समझते हैं । लड़के के लिए अच्छा होना और लड़की के लिये अच्छा होना एक से नही होते । दोनो के लिए अच्छे का मायना अलग है और गंदे का भी ।
अगर हम इन बातों के लिए जागरूक होकर अपनी आने वाली जनरेशन के पालन पोषण में बदलाव ला सकें तो बहुत बड़ी बात होगी ।
अन्नू कपूर ने जो कहा ,ऐसे वाक्यों का चलन होना भी घातक है औरत की आइडेंटिटी के लिए और ऐसे वाक्य इसी सोशलाइज़ेशन के तहत मुख से निकलते हैं जो हमें अब तक मिली है ।

Friday, March 28, 2008

खुल के बोलना भडास निकालना नही होता


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी



जब मैं लिख रहा हूँ "खुल के बोल" तो बहुत सम्भावना है कि इसे भडास निकालने के समतुल्य मान लिया जाए ....इसलिए ज़रूरी लग रहा है कि शुरुआत में ही इसे साफ कर दूँ कि "खुल के बोलना " क्या है ? जब -जब भडास शब्द सुनता हूँ यह महसूस होता है कि भडास चिंतन और वैचारिक प्रक्रिया से जुडने की बजाय कुंठा को अभिव्यक्त करता है । हमारे मन में किसी स्थिति या व्यवस्था या विशेष मानसिकता के प्रति आक्रोश होता है और तुरत-फुरत मौका मिलते ही हम उसे उगल देना चाहते हैं इस पूर्वाशा के साथ कि इससे मन हलका हो जाएगा और वापस काम पर चलेंगे तो ताज़ादम हो कर । लेकिन होता अक्सर यह है कि तुरत-फुरत में हलका किया गया मन हमेशा के लिये एक कुंठा से ग्रसित हो जाता है क्योंकि यह आसान काम लगता है कि गालियाँ बक दो ,थूक दो ,उगल दो और फारिग हो जाओ । दूसरी ओर ,एक थोडी जटिल व संतुलित स्थिति यह बनती है कि आक्रोश की वजहों को तलाशा जाए , चिंतन और मनन किया जाए और तब उस व्यक्तिगत अनुभव का सामान्यीकरण करके विषय को सार्थकता की ओर ले जाने का प्रयास हो । खुल के बोलने से निरभयता की ओर संकेत है । निर्भयता के माने दीवार की ओर मुँह करके बॉस को चार गाली देना नही है । निर्भयता के माने हैं व्यवस्थाजन्य दबावों और दुनियावी तौर तरीकों के पाश से मुक्त हो कर सही को सही और गलत को गलत कह सकने की हिम्मत होना । नफे -नुकसान की राजनीति की परवाह के बिना अपने विचारों को कह सकना ।
इस ब्लॉग के पीछे मेरा यही उद्देश्य है कि कैसे मैं दबावों से मुक्त रहकर वो कह सकता हूँ जिसे मैं वाकई कहना चाहता हूँ क्योंकि यह वास्तव में एक सांसारिक जीव के लिये एक दुश्कर कार्य है ।